रानी लक्ष्मी बाई को झाँसी की रानी के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मी बाई वास्तविक अर्थ में आदर्श वीरांगना थीं।
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई कविता झांसी की रानी की बहुत ही प्रचलित है।-
सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1828 को हुआ। उनकी माता का नाम भागीरथी बाई था जो बेहद कर्तव्यपरायण, धर्मनिष्ठ और सुसंस्कृत थी और पिता का नाम मोरोपत ताम्बे था। वे एक मराठी ब्राह्मण परिवार से आते थे। मोरोपंत ताम्बे मराठा बाजीराव की सेवा में थे। रानी लक्ष्मी बाई का असली नाम मणिकर्णिका था, बचपन में उन्हें प्यार से मनु कह कर बुलाते थे। रानी लक्ष्मी बाई की माता की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी, जब मनु की आयु 4 या 5 वर्ष की थी।
उसके बाद उनके पिता ने उनका पालन पोषण किया, बचपन से ही उनके पिताजी ने हाथियों और घोड़ों की सवारी और हथियारों का उपयोग करना सिखाया था। नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ रानी लक्ष्मीबाई पली-बढ़ी थी। मनु की सुंदरता और बाल सुलभ चंचलता ने सबका मन मोह लिया। यही नहीं पेशवा बाजीराव ने मनु को नया नाम दिया – छबीली।
समय के साथ साथ मनु की उम्र भी बढ़ी और इसके साथ ही मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ संपन्न करा दिया गया था। वर्ष 1842 में विवाह के पश्चात झांसी की रानी बन गयी और उनका नाम मनु से बदलकर रानी लक्ष्मी बाई रख दिया गया। 1851 में उनके बेटे का जन्म हुआ था, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया, परंतु 4 महीनों के बाद उनकी मृत्यु हो गई थी। राजकुमार की मृत्यु के दो वर्ष बाद यानी 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ चूका था। जिस वजह से दरबारियों ने उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी। उन्होंने अपने ही परिवार में वासुदेव राव नेवालकर के पुत्र आनंद राव (रिश्ते में गंगाधर राव के पौत्र) को गोद ले लिया। आनंद राव को गोद लेने के बाद उनका नाम बदलकर दामोदर राव कर दिया गया था।
21 नवम्बर, सन 1853 में महाराज गंगाधर राव नेवलेकर की मृत्यु हो गयी, परन्तु रानी ने अपना धैर्य और सहस नहीं खोया और बालक दामोदर की आयु कम होने के कारण राज्य – काज का उत्तरदायित्व महारानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं पर ले लिया। उस समय लार्ड डलहौजी गवर्नर था।
उस समय यह नियम था कि शासन पर उत्तराधिकार तभी होगा, जब राजा का स्वयं का पुत्र हो, यदि पुत्र न हो तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी में मिल जाएगा और राज्य परिवार को अपने खर्चों हेतु पेंशन दी जाएगी। उसने महाराज की मृत्यु का फायदा उठाने की कोशिश की। वह झाँसी को ब्रिटिश राज्य में मिलाना चाहता था। उसका कहना था कि महाराज गंगाधर राव नेवलेकर और महारानी लक्ष्मीबाई की अपनी कोई संतान नहीं हैं और उसने इस प्रकार गोद लिए गये पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया।
तब महारानी लक्ष्मीबाई ने लन्दन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुक़दमा दायर किया। पर वहाँ उनका मुकदमा ख़ारिज कर दिया गया। साथ ही यह आदेश भी दिया गया की महारानी, झाँसी के किले को खाली कर दे और स्वयं रानी महल में जाकर रहें, इसके लिए उन्हें रूपये 60,000/- की पेंशन दी जाएगी। परन्तु रानी लक्ष्मीबाई अपनी झाँसी को न देने के फैसले पर अडिग थी। वे अपनी झाँसी को सुरक्षित करना चाहती थी, जिसके लिए उन्होंने सेना संगठन प्रारंभ किया।
7 मार्च, 1854 को ब्रिटिश सरकार ने एक सरकारी गजट जारी किया, जिसके अनुसार झाँसी को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलने का आदेश दिया गया था। रानी लक्ष्मीबाई को ब्रिटिश अफसर एलिस द्वारा यह आदेश मिलने पर उन्होंने इसे मानने से इंकार कर दिया और कहा ‘ मेरी झाँसी नहीं दूंगी ’ और अब झाँसी विद्रोह का केन्द्रीय बिंदु बन गया। रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की मदद से एक सेना तैयार की, जिसमे केवल पुरुष ही नहीं, अपितु महिलाएं भी शामिल थी; जिन्हें युध्द में लड़ने के लिए प्रशिक्षण दिया गया था। उनकी सेना में अनेक महारथी भी थे, जैसे: गुलाम खान, दोस्त खान, खुदा बक्श, सुन्दर – मुन्दर, काशी बाई, लाला भाऊ बक्शी, मोतीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह, दीवान जवाहर सिंह, आदि। उनकी सेना में लगभग 14,000 सैनिक थे।
10 मई, 1857 को मेरठ में भारतीय विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका कारण था कि जो बंदूकों की नयी गोलियाँ थी, उस पर सूअर और गौमांस की परत चढ़ी थी। इससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर ठेस लगी थी और इस कारण यह विद्रोह देश भर में फ़ैल गया था। इस विद्रोह को दबाना ब्रिटिश सरकार के लिए ज्यादा जरुरी था, अतः उन्होंने झाँसी को फ़िलहाल रानी लक्ष्मीबाई के अधीन छोड़ने का निर्णय लिया। इस दौरान सितम्बर – अक्टूबर, 1857 में रानी लक्ष्मीबाई को अपने पड़ोसी देशो ओरछा और दतिया के राजाओ के साथ युध्द करना पड़ा क्योकिं उन्होंने झाँसी पर चढ़ाई कर दी थी।
इसके कुछ समय बाद मार्च, 1858 में अंग्रेजों ने सर ह्यू रोज के नेतृत्व में झाँसी पर हमला कर दिया और तब झाँसी की ओर से तात्या टोपे के नेतृत्व में 20,000 सैनिकों के साथ यह लड़ाई लड़ी गयी, जो लगभग 2 सप्ताह तक चली। अंग्रेजी सेना किले की दीवारों को तोड़ने में सफल रही और नगर पर कब्ज़ा कर लिया। इस समय अंग्रेज सरकार झाँसी को हथियाने में कामयाब रही और अंग्रेजी सैनिकों नगर में लूट – पाट भी शुरू कर दी। फिर भी रानी लक्ष्मीबाई किसी प्रकार अपने पुत्र दामोदर राव को बचाने में सफल रही।
इस युध्द में हार जाने के कारण उन्होंने सतत 24 घंटों में 102 मील का सफ़र तय किया और अपने दल के साथ काल्पी पहुंची और कुछ समय कालपी में शरण ली, जहाँ वे ‘तात्या टोपे’ के साथ थी। तब वहाँ के पेशवा ने परिस्थिति को समझ कर उन्हें शरण दी और अपना सैन्य बल भी प्रदान किया।
22 मई, 1858 को सर ह्यू रोज ने काल्पी पर आक्रमण कर दिया, तब रानी लक्ष्मीबाई ने वीरता और रणनीति पूर्वक उन्हें परास्त किया और अंग्रेजो को पीछे हटना पड़ा। कुछ समय पश्चात् सर ह्यू रोज ने काल्पी पर फिर से हमला किया और इस बार रानी को हार का सामना करना पड़ा।
युद्ध में हारने के पश्चात् राव साहेब पेशवा, बन्दा के नवाब, तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई और अन्य मुख्य योध्दा गोपालपुर में एकत्र हुए। रानी ने ग्वालियर पर अधिकार प्राप्त करने का सुझाव दिया ताकि वे अपने लक्ष्य में सफल हो सके और वही रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे ने इस प्रकार गठित एक विद्रोही सेना के साथ मिलकर ग्वालियर पर चढ़ाई कर दी। वहाँ इन्होने ग्वालियर के महाराजा को परास्त किया और रणनीतिक तरीके से ग्वालियर के किले पर जीत हासिल की और ग्वालियर का राज्य पेशवा को सौप दिया।
17 जून, 1858 में किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ युध्द लड़ते समय उन्होंने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र का मोर्चा संभाला। इस युध्द में उनकी सेविकाए तक शामिल थी और पुरुषो की पोषक धारण करने के साथ ही उतनी ही वीरता से युध्द भी कर रही थी। इस युध्द के दौरान वे अपने ‘राजरतन’ नामक घोड़े पर सवार नहीं थी और यह घोड़ा नया था, जो नहर के उस पार नही कूद पा रहा था, रानी इस स्थिति को समझ गयी और वीरता के साथ वही युध्द करती रही।
इस समय वे बुरी तरह से घायल हो चुकी थी और वे घोड़े पर से गिर पड़ी। चूँकि वे पुरुष पोषक में थी, अतः उन्हें अंग्रेजी सैनिक पहचान नही पाए और उन्हें छोड़ दिया। तब रानी के विश्वास पात्र सैनिक उन्हें पास के गंगादास मठ में ले गये और उन्हें गंगाजल दिया। तब उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा बताई की “ कोई भी अंग्रेज अफसर उनकी मृत देह को हाथ न लगाए ” इस प्रकार कोटा की सराई के पास ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में उन्हें वीरगति प्राप्त हुई अर्थात् वे मृत्यु को प्राप्त हुई।
ब्रिटिश सरकार ने 3 दिन बाद ग्वालियर को हथिया लिया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पिता मोरोपंत ताम्बे को गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा दी गयी। रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश राज्य द्वारा पेंशन दी गयी और उन्हें उनका उत्तराधिकार कभी नहीं मिला। बाद में राव इंदौर शहर में बस गये और उन्होंने अपने जीवन का बहुत समय अंग्रेज सरकार को मनाने एवं अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने के प्रयासों में व्यतीत किया। उनकी मृत्यु 28 मई, 1906 को 58 वर्ष में हो गयी।
इस प्रकार देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए उन्होंने अपनी जान तक न्यौछावर कर दी।
आशा करते हैं कि आपको झांसी रानी की कहानी का ब्लॉग अच्छा लगा होगा। ऐसे ही ब्लॉग्स पढ़ने के लिए जानकारियां पर बने रहिए।